ईक्किष का हो रहा हुॅ मैं
इस पेचिदा जीवन की बिती बातों को आज घसीट मस्तिश्क में रहा हुॅ मैं।
उन उत्सुक सुबहों की मायुस रातों के प्रष्न उलझ रहे हैं कहीं;
विषाल अनुभवों के समीकरण कोई वजूद बना रहे हैं नहीं;
ख़्यालों की इस गणना में आषा-निराषा उमड़ रहे हैं कई;
निहार रहा इस सागर के मंथन में लहरे जो उग रही हैं नई;
ये जटिलता संचारित हो रही क्योंकि...
20 गुजर गए उम्र के अब प्रवेष कर इक्किष मे रहा हूॅ मैं।।
वो भी क्या दिन थे सुहाने, जब किषोर थे हम।
वो उछलना-कुदना, वो हंसी-मजाक, क्याॅ गजब थी वो उदण्डता;
वो उबलता खुन नया, वो मुठी मे दुनियाॅ, क्या साहस की वो प्रचण्डता;
वो सपने, वो षायरी, वो गलतियाॅ, क्याॅ लाजवाब वो घमण्ड था;
वो षिक्षा, वो संस्कार, वो आषाए, क्याॅ मनोबल वो अखण्ड था;
वो ख्वाहिषों की नाव पर सवार, लापरवाह मस्ती के निचोड़ थे हम।।
ये अठखेलियाॅ दिख रही प्रत्यक्ष क्योंकि...
अब प्रवेष कर इक्किष मे रहा हूॅ मैं।।
फिर क्यों मेरी आत्मनिर्भरता आज निराषा में हो रही हैं औझल।
क्यों ये गुमनामी का अंधेरा मुझे सता रहा;
क्यों ये जालिम बार-बार मेरी हार मुझे बता रहा;
क्यों फिर मैं खुद को ही नकारात्मक करता रहा;
क्यों फिर इन गिरावटों से बार-बार, लगातार मैं मरता रहा;
फिर क्यों मेरी सफलता आज नींदों मे हो रही है वीरल।।
बढ रही है तड़प मेरी आसमां के लिए क्योंकि...
अब प्रवेष कर इक्किष मे रहा हूॅ मैं।।
ये सर्द और गर्म हवाएॅ बहाती हुई ले आई है मुझे परिपक्वता कि डगर पर।
षरीर से तो होंगे पर भावनाओं से आज भी अविकसित है;
ये जवानी तो अवसाद ही दे पाती है, बेचारी ये खुषियों से जो वंचित है;
मुष्किलें तो आई हैं कई, पर आंखो में चमक और सीने मे जोष आज भी असीमित है;
अच्छा है! छेखेंगे ये भी, सिखेंगे कुछ नया ही, आषाओं से हम अब भी परिपुरीत है;
दृष्य ये भी अच्छा है, और फिर मौसम तो बदलते रहते है, बस एक अनछुई सी तड़प बाकी है नजर पर।।
और वैसे भी बच्चा तो अब नहीं रहा हुॅ मैं क्योंकि...
अब प्रवेष कर इक्किष मे रहा हूॅ मैं।।
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