मेरे विचार
सोचता हुॅ मैं एक साथ विचारों की एक कड़ी।
उस प्रत्येक क्षण में बिखर कर पुनः बन जाती है एक लड़ी।।
बहुतायत में भरे पड़े हैं यहा कई संसार ।
प्रयेक मे मेरे नियमों और मेरे रचना समुद्र का है प्रसार।।
आखिर मेरा स्वामित्व है, मेरे इस मनके पर रखे सर्वभाग पर।
फिर भी पता नहीं क्यों आखिर टूट जाता हूॅ, इस पराई दुनिया के हर एक प्रहार पर।।
तब मेरे स्वयं के संसार पर नियंत्रण मेरा खो जाता है कहाॅ?
मेरे द्वारा रचित ब्रह्माण्ड क्यों मुझे ही प्रतीत होता सबसे घटिया जंहाॅ।।
यद्यपि जैसे-2 मिला मैं इस मानव रूपी हैवान से, इस सत्य रूपी भगवान से।
मेरा मस्तक हिला, और हिला, ज्यादा हिला, समझ आया ये संसार अतिसुक्ष्म है मेरे स्वयं के अभिमान से।।
व्यर्थ मे इनकी देखादेखी क्यों करे खराब हमारा व्यवहार।
अरे! मुर्ख से उलझना नहीं कोइ बुद्विमता, इतना तो समझो यार।।
चलो अब करलों उपर बाजुए कमीज़ की।
आखि़र हमारे विचारों को ठेस पहुंचाए, हरगिस ख़ैर नहीं उस बद्तमिज की।
दुनिया है खुबसुरत हमारी, इसको भी बना देंगे।
अच्छा करेंगे, सच्चा करेंगे और कोई आया बीच मे ंतो उसको भी बता देंगे। अच्छे-सच्चे, रचनात्मक विचार रखेंगे।।
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