व्यथा
उस दिन मैं था एक घोर चिंता में।
एक बड़ी सी उलझन में, एक धर्मसंकट में।
खड़ा था एक छोर पर मैं पानी लिए आॅखों में।
ना आया समझ के कैसे व्यक्त करू बातों में।
कुछ ना था उस वक्त मेरे आंचल में।
बस निराष ही थी दिख रही क्षेतिज तल में।
सुनहरी सफलता की तरस थी आॅखों में।
ह्रदय में भी तड़प थी खोने को उसकी बातों में।
क्या मैं चख पाउंगा वो जीत अपने जीवन में।
मेरा प्रेम होगा बीरहा की रुत या होगा वो सावन में।
क्या चुनना पड़ेगा कभी एक को, इन दोनों में।
क्या होगा फिर विकल्प मेरा उन क्षणों में।
फिर एक के साथ होगी जिंदगी, उस एक की कमी में।
फिर कैसे जी पाउंगा मैं, हाय! गालों की उस नमीं में।
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