चला जाऊं मैं कहीं, जहां इतना अंधेरा ना हो
निकल जाऊं मैं कहीं, जहां उजाला दिवारों में बंद ना हो
दुनिया ये अब मेरे मतलब की नहीं रही
सांसो से अब मेरी ये गफलत भी कर रही
यों आसान नहीं है अब चलना
मुश्किलों का भी मुश्किल है अब ढलना
बस! अब मैं और नहीं भटक सकता
मेरी खुशी पर मेरा कल नहीं खटक सकता
मैं आंखें मूंदकर पड़ा हूं कहीं कोने में
यूं टूट के गिर पड़ा हूं, दिन गुजरे कई रोने में
अब तो नहीं रहा मज़ा बंदी हो चलने में
लगे कई दिन बीत गए सजा को निकलने में
ये बेस्वाद सा रस घुल गया है हवा में
ऊब गए हैं चुन चुन के जीने में,
सफर ये बीत रहा दर्द औ दवा में
ये बेस्वाद सा रस घुल गया है हवा में।
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