थोड़ा वक्त निकाल कर जिंदगी से, कभी आना तुम मेरे गांव
गलियां भरी है यहां की संजीदगी से, महसूस होगा तुम्हें जब यहां रखोगे पांव
वो शाम की गौधूलि बैला, वह मंद मंद महकती तारों की रैना
चिड़िया सी चहकती भोर, और दोपहर का वह शांत शोर
थोड़ा वक्त निकाल कर जिंदगी से, कभी आना तुम मेरे गांव
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बरसे बरखा जब तो मिट्टी की खुशबू,
खेतों में लहराते कीटों की जुस्तजू,
दृश्य है ये शहरों की लालसा से बहुत दूर,
रमणीय है यहां का कण-कण भरपूर
थोड़ा वक्त निकाल कर जिंदगी से, कभी आना तुम मेरे गांव
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मुझसे मगर मेरे घर का पता ना पूछना
और क्या हुई मुझसे कोई खता, ये ना सोचना
तुम तो उतरते ही बस से, मेरे दादाजी का नाम लेना एक बार
यह गांव है, यहां घरों के बाहर नेम प्लेट नहीं होती मेरे यार
थोड़ा वक्त निकालकर जिंदगी से, कभी आना तुम मेरे गांव
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कोयल की कू-कू, मोर की सुंदरता
ट्रैक्टर, फावड़ा, बटोड़ा, डेगची और चिमटा
जैसे कल-कल बहती नदी में एक छोटी सी नाव
हमारे यहां हर एक आवाज हर एक शब्द में सिमटे हैं अनेक भाव
थोड़ा वक्त निकाल कर जिंदगी से, कभी आना तो मेरे गांव।
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