Skip to main content

Posts

अग्निपथ... अग्निपथ... अग्निपथ

अग्निपथ... अग्निपथ... अग्निपथ कल रात को ये सोच रहा था मैं; के आखिर कैसा ये भ्रम हैं। हर बात को ऐसे निचोड रहा था मैं; के जीते-मरते सभी, पर नित्य वैसा ही क्रम है।। रोज ये धरती गोल घुमती, सुर्य भी वैसा ही गरम है; बस चिंता मे था कि इस सब में मेरा क्या वजुद है। टूटे सपने मेरे, टूटे अपने मेरे, गैरों का हंसना कैसा ये धरम है; बस देख रहा था वहां ऊपर के कोई जोडने को टूटा अरमां मेरा क्या मौजूद है।। इस भ्रम की लड़ाई में चाहतों का किला मेरा क्या नेस्तनाबूद है; शायद हार का अंदेशा मेरी आंखो से गीरी बुंद से ही है। तभी तो सन्नाटा इतना गहरा छाया और पुछ रहा हरदमके अब भी दिल मेरा क्या मजबूत है; असल में लड़ाई तो मेरी हां! खुद से ही हैं।। खोया प्यार, दूर होए यार, फिर भी जुड़ा हूँ उनसे, जरूर एक दिन मिलुंगा, ये मैं जानता हुॅ; होगा कठिन हल इस भ्रम का शायद पर मैं अब गणितज्ञ नहीं, ये मस्तमोला अब साहित्य पढता हैं । पढा है पिछली सदियों के लिजेंडस के बारे मे, वो क्या लडे थे, ना जीए थे, जीवन, जिसको भ्रम मैं मानता हुॅ; गणित के शिक्षक कहते थे, हल मत ढुंढो, समस्या को समझो... और पिछली सदी के महानुभवों को पढा है और आइना ...

आहा! एक लम्हा

वो अजनबी

विद्यासार

विद्यासार क्या होता है विद्या का सार सिर्फ होता है क्या चाटना किताबें हजार क्या एक महिने या साल में प्राप्त कर सकते हैं इसे; कितनी गहराई कितनी चौडाई कितना है इसका प्रसार। शायद होगा ये किसी मानव दिमाग को पढना या स्वयं के विचारो अनुभवों को गढना क्या ये नहीं हो सकता किसी देश की संस्कृति; वरना ये होगा जरूर सफलता की प्रत्येक सिडी पर चढना। कोई कहता कि ये बराबर है माता-पिता के प्रेम जितना कहता कोई रहस्यमयी है आसमां हैं जितना कोई कहता पूरे जीवन का लेखा जोखा है; ओर कोई बताता इसे ब्रह़मांड हो छोटा जितना। असमंझस मे मैं बेचारा सोचता हूॅ बार बार सभी धर्मों को सुनना अच्छा बोलना मानव कल्याणकारी कर दे संसार हमेषा ज्ञान ग्रहण करते रहना, व्रद्धों व प्रकृती की सेवा करना; बच्चों को देना अच्छे संस्कार। अरे! हा! असल मे यही तो है सम्पूर्ण विद्या का सार।।

मेरा मन

मेरा मन क्यों आज मेरा मन हो रहा है विचलित ? क्याॅ ह्रदय जा रहा है कहीं होकर द्रवित ? क्याॅ करू मन में है बड़ी घोर असमंझस ? क्या सिर्फ मेरे साथ ही घटित हो रहा है यह मंझर ? बस! कुछ कह नहीं सकता मन में प्रस्फुटित प्रश्नों के उत्तर में। बस! सोचता हूॅ कैसे पार करू बाधाओं को, अटकलों या सूत्र में। मैं पथिक तो चल रहा था इस मोहमाया में गुजर के। कहीं इसके छिंटे मुझ पर ना गिरे, यही सोच-विचार के। तभी मस्तक में आया एक अन्य विचार... क्यों आज मेरा मन... क्याॅ ह्रदय जा रहा है कहीं होकर द्रवित ?

व्यथा

व्यथा उस दिन मैं था एक घोर चिंता में। एक बड़ी सी उलझन में, एक धर्मसंकट में। खड़ा था एक छोर पर मैं पानी लिए आॅखों में। ना आया समझ के कैसे व्यक्त करू बातों में। कुछ ना था उस वक्त मेरे आंचल में। बस निराष ही थी दिख रही क्षेतिज तल में। सुनहरी सफलता की तरस थी आॅखों में। ह्रदय में भी तड़प थी खोने को उसकी बातों में। क्या मैं चख पाउंगा वो जीत अपने जीवन में। मेरा प्रेम होगा बीरहा की रुत या होगा वो सावन में। क्या चुनना पड़ेगा कभी एक को, इन दोनों में। क्या होगा फिर विकल्प मेरा उन क्षणों में। फिर एक के साथ होगी जिंदगी, उस एक की कमी में। फिर कैसे जी पाउंगा मैं, हाय! गालों की उस नमीं में।

चंचलता

चंचलता मैं हुॅ ख़ामोश; पर मेरा ह्रदय बोल रहा। दुनियाॅ है ये स्थिर; पर मेरा मन डोल रहा। कुछ सोचता जो; वो मैं नहीं हूॅ कर रहा। रास्ते पर पथरिलें; हूॅ मैं क्यों गिर रहा। खुरदरापन ये षायद; जीवन में मैं स्वयं ही चुन रहा। नुकिलें किनारों पर तभी तो; स्वपनों को मैं चला रहा। समझता तो हूॅ ही; नादान तो नहीं मैं अब रहा। फिर नाजाने क्यों यूहीं; व्यर्थ भटक मैं तब रहा। उफ!उफ!उफ! चकरा गया दिमाग; जब बारे में स्वयं के हूॅ मैं सोच रहा। हूॅ मैं समझदार या फिर; पूर्वजन्म में मुर्खों पर हो मेरा राज रहा। सोचता हूॅ मैं; भूतकाल भयावता है, भविश्य भरमा रहा। हे! ईष्वर! क्यों न तब; मैं वर्तमान में हो खुष लहरा रहा। अरे! मैं हूॅ ख़ामोश;मेरा मन बोल रहा। दुनियाॅ है ये स्थिर; पर मेरा ह्रदय डोल रहा।